भारतीय पुरातत्व विभाग के अधीन बूंदी के गढ़ में स्थित चित्रशाला कला प्रेमियों को आकर्षित करती है। रागरागिनी,
बारह मासा, रासलीला, गणगौर तथा शिकार के दृश्यों का प्रकृति के साथ चटखदार रंगों में अभिनव संयोजन एवं
लघु चित्र शैली में अंकन बूंदी कलम की विशेषता है। भित्ति चित्रों के इस सम्मोहक एवं ऐतिहासिक खजाने,
चित्रशाला को कला समीक्षकों ने कलाधाम की संज्ञा से विभूषित किया है।
बूंदी चित्रकला का अभ्युदय राव राजा सुरजन हाडा (1554−1585) से माना जाता है। प्रारंभ में राजनैतिक अधीनता
तथा चित्रकारों के नाथद्वारा एवं उदयपुर से आने के कारण बूंदी कला पर मेवाड़ शैली का अधिक प्रभाव रहा।
लेकिन बाद में कलाकारों ने इस क्षेत्र के परिवेश को दृष्टिगत रखते हुए चटख लाल, हरा, नीला और सवर्ण रंगों का
उपयोग करते हुए आकृतियों में अंतर एवं प्राकृतिक दृश्यों में भिन्नता को उजागर करते हुए एक नई शैली को
विकसित किया, जो बूंदी कलम और बूंदी शैली के रूप में विख्यात हुई।
यहां 17वीं सदी में श्रृंगार एवं संस्कृत तथा हिन्दी के प्रेमाख्यानों पर आधारित नायिका भेद, बारहमासा एवं
रागरागिनी के चित्र बने। राग भैरवी के दुर्लभ चित्र अब इलाहाबाद संग्रहालय तथा राममाला के भारतीय कलाभवन
बनारस, कानोडिया संग्रहालय कोलकाता और राष्ट्रीय संग्रहालय दिल्ली में सुरक्षित हैं।
इस क्षेत्र के शासकों के मुगल बादशाहों से मधुर संबंधों के कारण मुगलकाल का भी बूंदी कलम पर प्रभाव पड़ा।
नायिकाओं के चित्रण में कहीं−कहीं मुस्लिम पहनावा एवं नजाकत का सफलता के साथ अंकन हुआ है। भारतीय लघु
चित्रण परंपरा में बूंदी शैली अद्वितीय मानी गयी है तथा अट्ठारहवीं सदी को इस कलम का स्वर्णयुग कहा जाता
है।
इस दौर में यहां पुष्टिमार्गीय वल्लभ संप्रदाय का प्रभाव पड़ा तथा अष्टदाप कवियां के पदों पर श्रीकृष्ण विषयक
चित्रांकन हुआ।
राव उम्मेद सिंह के शासनकाल (1749−73) में बूंदी गढ़ के एक हिस्से में व्यवस्थित रूप से आर्ट गैलरी का निर्माण
हुआ और उसमें राधा−श्रीकृष्ण से संबंधित रासलीला एवं विभिन्न लीलाओं का भव्य चित्रांकन हुआ। जो उनके
उत्कृष्ट कला प्रेम एवं धार्मिक वृत्ति के जीवंत उदाहरण हैं।
कुछ चित्रों में शासक धोती पहने अपने कुलदेवता
श्रीरंगनाथ जी तथा देवी के सम्मुख प्रार्थनारत हैं।
बूंदी चित्र शैली प्राकृतिक संपदा से भी परिपूर्ण है। आम, अशोक, वट, केला आदि वृक्ष, कमल, कुंज, मूल, पौधे तथा
घोड़ा, हाथी, सिंह, बाघ, हिरन, मयूर, तोते आदि पशु पक्षियों का भी कुशलता से चित्रण हुआ है।
पुष्टिमार्गीय प्रभाव
के कारण गायों का भी सुंदर चित्रण किया गया है।
भवन के अंदर की छतों में तथा मंदिरों में समय−समय पर
लगाये जाने वाले चंदोबे एवं पिछवाईयों का भी आकर्षक चित्रांकन है इस चित्रशाला में।