23 अप्रैल विजयोत्सव : अस्सी बरस के योद्धा बाबू कुंवर सिंह, कभी हार का मुंह नहीं देखे
“ब्रिटिश इतिहासकार होम्स ने कुंवर सिंह के बारे में लिखा है, ;उस बूढ़े राजपूत ने ब्रिटिश सत्ता के विरुद्ध अद्भुत
वीरता और आन-बान के साथ लड़ाई लड़ी।
यह गनीमत थी कि युद्ध के समय कुंवर सिंह की उम्र अस्सी के करीब
थी। अगर वह जवान होते तो शायद अंग्रेजों को 1857 में ही भारत छोड़ना पड़ता। ” जाति-धर्म से ऊपर जिन्होंने
अपनी राजसत्ता को कायम रखा। सबके लिए बराबर का भाव रखा।
मुंबई के खार इलाके में सात मंजिला इमारत में लगी आग
कभी किसी जातीय, धार्मिक उन्माद को अपने
यहां नहीं होने दिया। जिस रियासत ने देश की सबसे लंबी लड़ाई लड़ने का इतिहास कायम किया। वो अस्सी वर्ष
का युवा रण बांकुरे वीर कुंवर सिंह की मैं बात कर रहा हूं।
कुंवर साहब के ऊपर मैंने बहुत खोजबीन की मगर इनके
ऊपर सिर्फ कुछ तथ्यों को छोड़कर खोज पाना असंभव प्रतीत होता था।
इतिहास में जितनी इनको जगह मिलनी
चाहिए थी, वो भी स्थान इन्हें नहीं मिल सका।
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बिहार के शाहबाद अब भोजपुर जिले के जगदीशपुर रियासत के
राजा बाबू कुंवर सिंह किसी परिचय के मोहताज नहीं हैं।
उन्होंने अपने जीवनकाल में जो अद्भुत कार्य किया उसके
लिए इतिहास में अमर हो गए।
कुंवर सिंह जी एक ऐसे राजा जिन्होंने एक नर्तकी धर्मन बाई का हाथ क्या पकड़ा, पूरी जिंदगी उसी के होकर रह
गए। उनसे बक्सर जिले के ब्रह्मपुर शिव मंदिर में शादी रचाए थे
। इस शादी के दौरान उनलोगों ने कसम खायी थी
की हम गुलाम देश में किसी संतान को जन्म नहीं देंगे।
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वैसे तो बाबू साहब हरफोनमौला इंसान थे। इनको अपनी
रियासत के सभी लोगों को बराबर का दर्जा देते हुए ख्याल रखना इनकी नियति में शामिल था।
धर्मन बाई से धर्मन
बीबी बनी धर्मन और उसकी बहन कर्मन ने बाबू साहब में अपनी सांस्कृतिक मंच से इतनी जागृति पैदा की, कि
बाबू साहब देश को अंग्रेजों की बेड़ियों से निकालने के लिए निकल पड़े।
1857 का भारतीय विद्रोह, जिसे प्रथम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम, सिपाही विद्रोह और भारतीय विद्रोह के नाम से भी
जाना जाता है। यह एक सशस्त्र विद्रोह था जिसमें बहादुरशाह जफ़र के नेतृत्व में रानी लक्ष्मी बाई, नाना साहब
पेशवा, तात्या टोपे, मंगल पाण्डे, बेगम हजरत महल, मौलवी अहमद शाह, अजीमुल्ला खां, अमरचंद बांठिया, बाबु
कुंवर सिंह, देशभक्तों ने अपना सबकुछ लुटाकर पहली बार अंग्रेजों की शक्ति को चुनौती देकर आजादी के लिए
आवाज बुलंद किया था।
आंदोलन को आगे बढ़ाने के लिए कुंवर सिंह ने नोखा, बरांव, रोहतास, सासाराम, रामगढ़, मिर्जापुर, बनारस,
अयोध्या, लखनऊ, फैजाबाद, रीवां, बांदा, कालपी, गाजीपुर, बांसडीह, सिकंदरपुर, मानियर और बलिया का दौरा किया
था और संगठन खड़ा किया था। वीर कुंवर सिंह शिवपुर घाट से गंगा पार कर रहे थे कि डगलस की सेना ने उन्हें
घेर लिया। बीच गंगा में उनकी बांह में गोली लगी थी।
गोली का जहर पूरे शरीर में फैल सकता था। इसे देखते हुए
वीर कुंवर सिंह ने अपनी तलवार उठाई और अपना एक हाथ गंगा नदी में काटकर फेंक दिया। वहां से वह 22
अप्रैल को 2 हजार सैनिकों के साथ जगदीशपुर पहुँचे। अंतिम लड़ाई में भी उनकी जीत हुई लेकिन उसके तीन दिन
बाद 26 अप्रैल 1858 को बाबु वीर कुंवर सिंह संसार से हमेशा के लिए विदा हो गए। इस युद्धवीर ने 25 जुलाई
1857 सेलेकर 21 अप्रैल 1858 तक के इस नौ माह के युद्ध में कुल पंद्रह भयानक लड़ाइयां लड़ीं। युद्ध लड़ने से
ज्यादा उसके लिए माकूल रणनीति का होना बहुत जरुरी है। गोरिला युद्ध में माहिर बाबू वीर कुंवर सिंह के नेतृत्व
में कुशल रणनीति की झलक स्पष्ट रुप से दिखायी देता है।
उस दौर में एक से एक योद्धा थे। सुविधा संपन्न थे। लेकिन बाबू साहब अपने देशी हथियार तलवार और डंडे के
सहारे देश को आजादी दिलाने के लिए निकल पड़े। अपनी रियासत से दूर 9 माह तक 15 युद्ध लड़ने वाले बाबू
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साहब ने एक इतिहास कायम किया कि एक भी युद्ध नहीं हारे। गुरिल्ला युद्ध करने वाले बाबू साहब के दो
स्ट्रेटजी प्लानर थे एक धर्मन बीबी तो दूसरे बाबू साहब के 12 वर्षीय पोता रिपुभंजन सिंह। इनलोगों की प्लानिंग
ऐसी की हर युद्ध का डटकर मुकाबला किया और किसी में हार का मुंह नहीं देखा। अफसोस इस बात का जरुर रहा
कि इस गदर ने बाबू साहब की आंखों के सामने अपने इकलौते पुत्र और जिससे सबसे ज्यादा अनुराग रखते थे
अपने पोते और अपनी प्रियतमा धरमन बीबी को काल्पी में खो दिया। इस तरह से इनलोगों की शहादत से टूट चुके
बाबू साहब अब कमजोर पड़ने लगे थे। इनको खबर मिली की आरा पर अंग्रेजों ने कब्जा कर लिया है। फिर क्या
शेर गर्जना करते हुए अपनी रियासत की तरफ लौटने लगे।
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